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भूर्भुव: स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।।

जैसा कि सब जानते ही हैं कि ॐ अक्षर अ, उ और म इन तीन से मिलकर बना है संक्षेप में यदि कहा जाए तो इसे उस प्रकार कह सकते हैं कि समस्त सृजनात्मक ऊर्जा ब्रह्मा, सृजन किए हुए को सहेजने या पालन करने वाली ऊर्जा जिसे maintaining पावर कहते या इसे ही विष्णु नाम से भी लोग जानते हैं और इस सब के बीच जो नाना प्रकार के मल विक्षेप आदि तथा जो अवांछित पदार्थ बन जाते हैं उन पदार्थों को शरीर से बाहर निकालना या उनको किन्हीं और रूप में किसी अन्य तरीक़े से प्रयोग के योग्य बनाना ये कार्य संहारक कार्य कहलाते हैं। इस प्रकार इन तीनों शक्तियों के कर्म को प्रैक्टिकल रूप में होते हुए देखना पर कहाँ और कैसे? आइए विचार करते हैं—

भू:

रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले भाग में सुषुम्णा की Coccygeal plexus वाली नाड़ियों के गुच्छे में जो उपस्थित ऊर्जा है वहाँ से प्राण ऊपर उठते हैं इसे सप्त व्याहृतियों के अनुसार प्रथम लोक भूलोक भी कहा जाता है इस स्थान में ॐ की जो ऊपर व्याख्या करके उसके विषय को प्रैक्टिक्ली घटित होता हुआ महसूस करें अर्थात् तीनों ऊर्जाओं को अपना अपना कार्य सम्पन्न करते हुए महसूस कीजिये। साथ ही ये भी अनुभव कीजिए कि यही स्थान ऐसा है कि जहाँ से हमारे प्राणों को ऊर्जा मिलती है उस ऊर्जा के आधार के रूप में इसे आप अनुभव करें।

फिर उसके पश्चात्

भुव:

Coccygeal plexus से ऊपर Sacral region जिसे भुव: लोक कहते हैं। भुव: का एक अर्थ आकाश लोक भी होता है इसमें में भी सुषुम्ना से दोनों तरफ़ नाड़ियाँ निकलकर यहाँ भी नाड़ियों का एक गुच्छा बनाती हैं जिसकी ऊर्जा से इस क्षेत्र के अंग प्रत्यंगों के कार्य सम्पन्न होते हैं ये क्षेत्र अपान वायु का है इस स्थान की ये अपान वायु रूपी ऊर्जा के रूप में मुख्य रूप से शरीर में उत्पन्न मलों के निष्कासन के कार्य का निर्वहन करती है।
इस स्थान में इन क्रियाओं के साथ साथ वही ॐ की तीनों ऊर्जाओं के सम्मिश्रण से यहाँ के सभी क्रियाकलापों को भी सम्पन्न होता हुआ देखिये।

स्व:

Sacral के बाद कटि प्रदेश अर्थात् lumbar area में सुषुम्ना से दोनों तरफ़ से निकलने वाली नाड़ियों के गुच्छे को जिसे lumbar plexus कहते हैं इस स्थान को द्युलोक या आदित्य लोक भी कहते हैं नाभि से लेकर पसलियों के निचले किनारे तक का भाग इसमें शामिल होता है उदर वाला भाग होने से भोजन का पाचन इसी हिस्से में होता है जो भोजन हम करते हैं उसका सही ढंग से पाचन क्रिया करके उसके रसों के द्वारा हमारा liver इसके तत्त्वों को प्रकाशित करता और शरीर में यथावश्यक स्थान पर उसे भेजकर वहाँ का पोषण करता है इस स्थान में जाकर इस स्थान में भी वही ॐ की तीनों ऊर्जाओं के द्वारा ये सब सम्पन्न होता हुआ अनुभव कीजिये।

आपने बस इतना भर करना है कि एवं उक्त स्थानों पर होने वाले कार्यों को एक साथ मिश्रित होकर एक दूसरे में समाहित होते हुए महसूस करना है।

तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।

इस प्रकार जिन विषयों को आप अभी तक अनुभव करते आ रहे हैं उन विषयों की ऊर्जा को प्राप्त करते हुए उससे चूँकि हमारे शरीर के सभी कार्यों को करने की शक्ति प्राप्त होती है अतः उस ऊर्जा से प्रकाशित होने वाले जो दिव्य तत्त्व हैं उन पर विचार करते हुए कि ये कैसे और क्या घटित हो रहा है उस विषय के शुद्ध स्वरूप को अपनी बुद्धि में ध्यान एवं विचार करें जिससे

धियो यो न: प्रचोदयात।।

जिसके प्रसाद रूप से उस चिंतन मात्र से ही सभी नाड़ियों का ॐ अर्थात् संजनन अनुपालन तथा संहार क्रिया (यथावश्यक) होकर एक विशुद्ध स्वरूप का या यों कहें कि एक साफ़ सुथरे विशुद्ध परिस्थिति का निर्माण होगा जिससे हमारी बुद्धि उत्तम रूप से अपने सभी कार्य सम्पन्न करने में उद्यत होती है। ये सब हम ॐ के ध्यान के साथ शुरू से अंत तक होता हुआ अनुभव करें। यही गायत्री ध्यान जप और उपासना है क्योंकि जब हम गायत्री जप की बात करते हैं तो हमें महर्षि पतंजलि द्वारा योग दर्शन में कहे वाक्य –>

“तज्जपस्तदर्थभावनम्”

के अनुसार किसी नाम या मंत्र का जप उसके अर्थ की भावना करना होता है अमेरिका में इसे ही Creative Visualization का नाम दिया गया है।

इसे आप ऐसे भी समझ सकते हैं जैसे एक चिकित्सक जब कोई औषधि का निर्माण करता है तो एक खरल में सभी औषधियों को डाल कर उसमें कुछ जड़ी बूटियों का रस निकालकर उसी में मिलाकर लम्बे समय तक उसको घोटता है जिससे सभी द्रव्य आपस में एकीकृत हो जाते हैं उसमें मिले हुए सभी द्रव्यों का एकीभाव हो जाता है इसी प्रकार गायत्री या जिस भी मंत्र या नाम का जप करना हो उसके भाव और रहस्य को समझते हुए उसके साथ स्वयं को एकीकृत करना होता है।

इस प्रकार नित्य प्रति इस गायत्री का ध्यान करते हुए निश्चित सफलता मिलेगी अब ये आप के ध्यान के केंद्रीकरण क्रिया की तीव्रता पर इसकी सफलता मिलने में लगने वाला समय निर्भर करता है।

यही गायत्री मंत्र है यही इसका भावार्थ है और यही इसका रहस्य है।

ईश्वर आप सबको इस मंत्र की नियामत प्रदान करे।

आप सबके कृपा प्रसाद के रूप में ईश्वर की अनुकंपा से जिन शब्दों का प्रयोग करते हुए गायत्री के विषय में जो कुछ लिख पाया हूँ उसमें मेरा कोई शब्द नहीं है। मैं तो बस बिना कुछ भो सोचे समझे लिखने बैठ गया बस मंत्र याद ज़रूर था उसको सोचता रहा और आप लोगों के निमित्त अंदर से जो शब्द आते रहे उनको type करता रहा।


मैं और मेरा स्मार्ट फ़ोन तो बस साधन मात्र रहे साध्य ख़ुद अंदर से शब्दों का चयन करके प्रस्तुतीकरण हेतु प्रेरणा करता रहा।
आशा है इस को पढ़कर आप लोगों के मन को थोड़ी बहुत संतुष्टि अवश्य मिलेगी।

अब मैं इस प्रस्तुति को आपके विचारार्थ रखता हूँ। 

धन्यवाद

डॉ० प्रमोद कुमार

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